छत्तीसगढ़ में बहुप्रतीक्षित अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत प्रावधानों का विस्तार-PESA कानून लागू हो गया है। आदिवासी समुदाय इसके लिए वर्षों से लड़ाई लड़ रहा था। उनको उम्मीद थी कि ये नियम बन जाने से कम से कम भूमि अधिग्रहण के मामले में ग्राम सभा की सहमति अनिवार्य हो जाएगी। लेकिन नियमों का अंतिम ड्राफ्ट सामने आया है तो पता चला कि उनके साथ खेला गया है। सरकार ने भूमि अधिग्रहण के मामले में ग्राम सभा की भूमिका केवल सलाह देने तक सीमित कर दी है।
पहिया उल्टा घूम गया
लंबे समय से वन अधिकार और PESA कानून लागू करने की लड़ाई लड़ रहे छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला कहते हैं, PESA कानून का मूल मकसद सत्ता का विकेंद्रीकरण है। इसमें ग्रामसभा को स्वायत्त संस्था के रूप मान्यता दी गई है जिसमे कार्यपालिका और विधायिका के समान अधिकार होंगे। यहां तो पहिया उल्टा घूम गया। छत्तीसगढ़ सरकार ने जो नियम बनाए हैं, वह पांचवी अनुसूची क्षेत्रों के निवासियों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ है। यह न तो PESA कानून की मूल मंशा के अनुरूप है और न ही आदिवासियों की संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप।
भूमि अधिग्रहण पर ही बड़ी आपत्ति
आलोक शुक्ला कीआपत्ति भूमि अधिग्रहण में ग्राम सभा की भूमिका से जुड़े नियमों पर ही है। शुक्ला कहते हैं कि नियम में पहली चलाकी सहमति को परामर्श बनाकर की गई है। दूसरी बड़ी चलाकी कलेक्टर को अपीलीय अधिकारी बनाकर की जा रही है। शुक्ला कहते हैं, कहीं पर भी कलेक्टर ही भूमि अधिग्रहण का अधिकारी होता है। अधिग्रहण का फैसला वही लेता है। अब यह नियम कहता है कि अधिग्रहण के फैसले के खिलाफ कलेक्टर को अपील किया जा सकेगा। यानी अगर कहीं गलत ढंग से अधिग्रहण हुआ है तो वह कलेक्टर ने ही किया है। अब वह ही उसके खिलाफ हुई शिकायत की सुनवाई भी करेगा। ऐसे में न्याय कहां मिलेगा।
पहले ड्राफ्ट में ऐसा नहीं था, कैबिनेट में भी हुआ था विरोध
पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने नवम्बर 2021 में लोगों के सुझाव के लिए जो प्रारूप प्रकाशित किया था, उसमें भूमि अधिग्रहण के लिए 50% कोरम के साथ ग्राम सभा की अनुमति को अनिवार्य किया गया था। अधिग्रहण के खिलाफ अपीलीय अधिकारी भी राजस्व एवं आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव को बनाने की व्यवस्था प्रस्तावित थी। बताया जा रहा है, 7 जुलाई को राज्य मंत्रिपरिषद की बैठक में PESA नियमों के प्रारूप को मंजूरी दी गई। उस दिन अधिकारियों ने एक प्रजेंटेशन दिया। उस प्रजेंटेशन में भी अधिग्रहण के लिए सहमति जरूरी बताया गया था। जिसका तत्कालीन पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री टीएस सिंहदेव ने इस पर विरोध जताया। लेकिन उनकी बात काे अनसुना कर दिया गया।
सिंहदेव के इस्तीफे की एक वजह यह भी
मंत्री टीएस सिंहदेव ने 16 जुलाई को पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग से इस्तीफा भेज दिया था। कुल चार पेज की चिट्ठी में दूसरे ही पेज पर सिंहदेव ने PESA नियमों के प्रारूप में छेड़छाड़ का जिक्र किया था। उनका कहना था, दो साल तक वे विभिन्न समुदायों, विशेषज्ञों से चर्चा कर प्रारूप तैयार कराए। विभाग ने जो प्रारूप कैबिनेट कमेटी को भेजा था, जिसके मुताबिक चर्चा हुई उसमें से जल, जंगल, जमीन से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदुओं को बदल दिया गया। सिंहदेव ने कहा था, शायद पहली बार कैबिनेट की प्रेशिका में बदल दिया गया। विभाग के भारसाधक मंत्री को भी विश्वास में नहीं लिया गया। इस मुद्दे पर सिंहदेव ने मुख्यमंत्री को एक पत्र भी लिखा है।
छत्तीसगढ़ के राजपत्र में आठ अगस्त को प्रकाशित छत्तीसगढ़ पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) नियम-2022 में ग्राम सभा को सशक्त करने की कोशिश दिखती है। लेकिन इसकी कंडिका 36 विवादों में घिरती दिख रही है। इस कंडिका का शीर्षक है – भूमि अधिग्रहण/शासकीय क्रय/हस्तांतरण से पहले ग्राम सभा की सहमति। लेकिन लेकिन इसकी उप कंडिका -1 सहमति के प्रावधान को खारिज कर देती है। इसमें कहा गया है कि शासन में प्रचलित सभी कानून/नीति के अंतर्गत कोई भी भूमि अधिग्रहण करने से पूर्व ग्राम सभा से परामर्श लेना अनिवार्य होगा। इस कंडिका की उप कंडिका -5 के मुताबिक अधिग्रहण संबंधी निर्णय के विरुद्ध कलेक्टर के समक्ष अपील किया जा सकेगा। छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के संरक्षक और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम कहते हैं कि यह तो धोखा है। जंगल और जमीन बचाने, विस्थापन रोकने के लिए आदिवासी समाज की पूरी लड़ाई उनकी सहमति के प्रावधान को लेकर ही है। उसके बिना तो ग्राम सभा कुछ कर ही नहीं सकती। अगर ग्राम सभा केवल परामर्श देगी तो सरकार उसे मानने के लिए ताे बाध्य नहीं होगा। उन्होंने कहा, PESA नियमों को लेकर जल्दी ही समाज के बीच बड़े स्तर पर चर्चा शुरू की जाएगी।
