खरगोन दंगे का दर्द यहां के जले हुए मकानों के बिखरे परिवारों से पूछिए। हम संजय नगर में हैं। अब यहां किसी की पत्नी-बेटी लौटना नहीं चाहता तो कोई घर को बेचना चाहता है। महेश मुछाल का घर पूरी तरह जल गया है। पत्नी और बेटी खरगोन में ही रिश्तेदारों के यहां शरण लिए हुए हैं। महेश कहते हैं कि मेरी पत्नी ने मेरे आगे हाथ जोड़ लिए… कहती है मर जाऊंगी, लेकिन इस घर में नहीं लौटूंगी।
उन्होंने मुझे अकेला छोड़ दिया है। महेश की आंखें डबडबा गईं। रुआंसी आवाज में बोले- ये पहली बार नहीं है, जब मेरा घर जला है। 2012 और 2015 में भी जला था, लेकिन इस बार तो कुछ नहीं बचा। पत्नी-बेटी भी यहां आने के लिए तैयार नहीं हैं। अब मुझमें भी इतनी हिम्मत नहीं है कि नए सिरे से गृहस्थी बसा सकूं।
संगीता की भी पूरी गृहस्थी जलकर खाक हो चुकी है। बेटे-बेटी उनके रिश्तेदारों के घर शरण लिए हुए हैं। संगीता कहती हैं कि 2012 में होली और 2015 में दशहरे पर भी हमारे घर जले थे। इस बार तो सबकुछ खत्म कर दिया। घर में कुछ नहीं बचा। रामनवमी के दिन जब शाम को तालाब चौक में धांधल (दंगे) शुरू हुए तो बेटा, मेरी बेटी को लेकर रिश्तेदार के घर चला गया। हम तो काम पर गए थे। हम अगले दिन सुबह लौट पाए। देखा तो सबकुछ खत्म हो चुका था।
संगीता के पड़ोस में रहने वाले पवन काले भी अब यहां रहना नहीं चाहते। कहते हैं कि बार-बार होने वाले दंगों से परेशान हो गए हैं। वे तो 6 महीने पहले ही मकान बेचने के लिए निकाल चुके हैं। दंगे वाले दिन भी वे शाम को परिवार सहित अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे।
दंगाइयों ने खाने-पीने का सामान तक लूट लिया
कर्फ्यू के बीच यहां की गलियों से गुजरे तो पता चला कि दंगों का सबसे ज्यादा दर्द भी यहीं हैं। यहां नफरत की आग की लपटें कितनी तेज थीं, ये इन घरों के अवशेष बताते हैं। दंगाइयों ने घर से खाने-पीने का सामान भी लूट लिया। किचन के बर्तन से लेकर बाथरूम की बाल्टी तक सबकुछ जलकर खाक हो गया।
इस गली में ऐसी एक नहीं अनगिनत कहानियां हैं। दंगे ने इनकी जिंदगी तबाह कर दी। सरकार और सिस्टम यहां इन्हें बसाने में शायद मदद कर भी दे, लेकिन इनकी जिंदगी अब पहले की तरह नहीं हो सकेगी। उस अब्दुल और रहीम के साथ महेश और संगीता का सद्भाव कैसे कायम होगा, जिन पर उनकी गृहस्थी उजाड़ने का आरोप है।
